दुनिया में जितनी बार भी लोग चले. वो चले अच्छे भविष्य के लिए. कुछ नहीं तो जान बचाने के लिए. अफ्रीका में जब आदिम लोग चले होंगे यूरोप की तरफ तो इसलिए नहीं कि वो मरना चाहते थे. वो चाहते थे नई जमीनें देखना. नए फल चखना. नए जानवर देखना. एक जिजीविषा होगी जीने की जो उन्हें अफ्रीका से दुनिया के तमाम देशों में ले गई.

चलने का ये सिलसिला रूका नहीं. बुद्ध भी चले ज्ञान के लिए. महल छोड़कर जंगलों जंगलों भटकते रहे. ज्ञान मिला रूक गए. हज़ारों लाखों लोग युद्ध करने भी चले. चंगेज खान चीन से वेनिस तक पहुंच गया पैदल सेना, घोड़े पर सेना लेकर. कहने का मतलब कि लोग चले कुछ नया करने. कुछ जीतने. जीने के लिए बेहतरी के लिए.

सीरिया से इराक से बांग्लादेश से भी लोग पैदल चल कर गए दूसरे देशों में. भारत पाकिस्तान विभाजन हुआ तो लोग पलायन कर गए दूसरे देशों में. आखिर क्यों. एक अच्छे भविष्य के लिए. रास्ते में मर खप गए. मार दिए गए. वो दूसरा किस्सा था लेकिन मन में ये तो था कि जहां जा रहे हैं वहां कुछ बेहतर होगा.

मेक्सिको के रास्ते हजारों लातिन अमेरिकी कुछ दूर ट्रेन पर लदकर और बाकी हजारों मील पैदल चलकर अमेरिका में घुसते हैं इसलिए थोड़े कि वो मरना चाहते हैं बल्कि इसलिए कि उन्हें यहां दो रोटी मिलेगी. रोजगार मिलेगा और किस्मत अच्छी रहेगी तो जीवन सुंदर होगा.

ये दुनिया के इतिहास में संभवत पहली बार हो रहा है जब लोग अपने घरों को लौट रहे हैं सिर्फ और सिर्फ चैन से मरने के लिए. उन्हें पता है कि इस यात्रा के बाद जहां वो पहुंचेंगे वहां उनके पास कुछ बेहतर नहीं है  करने को. बेहतर होता तो वो अपने घरों को छोडकर शहरों को नहीं जाते बारह बारह घंटे काम करने के लिए.

उन्हें पता है कि लौट कर अपने घरों में उन्हें जो एक चीज़ मिलेगी वो ये कि वो शायद भूखे न मरें या फिर मरें तो कोई उनकी लाश फेंक नहीं देगा. ये पहली यात्रा है पांव पावं जो किसी बेहतर भविष्य की तरफ नहीं है.

ये यात्रा है मृत्यु की ओर अपनी ज़मीन पर मरने की आदिम इच्छा की इस यात्रा को उसी तरह देखा जाना चाहिए. ये मृत्यु की यात्रा है जहां मजदूर अपने शव खुद ढोकर चल रहे हैं सिर्फ इसलिए कि वो अपनी ज़मीन पर मर सकें.

कब हुई थी ऐसी कोई यात्रा मृत्यु की ओर. मुझे अपने जीवन में ऐसी कोई यात्रा याद नहीं आती और न इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण दिखता है जब एक देश.....हां वही....तथाकथित देश में बिना किसी युद्ध के बिना किसी प्रताड़ना के एक समुदाय (अगर गरीब को समुदाय मान लें तो) के लोग चलने लगे थे हजारों किलोमीटर एक ऐसे कुएं की ओर जहां से वो हर साल निकल जाते थे कि शहर जाकर बच जाएंगे थोड़ा बढ़ जाएंगे जीवन में.

इस हताशा की यात्रा, मृत्यु की इस यात्रा को कैसे देखा जाए जहां बचाने वालों ने इन चलने वालों के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा हो. लोग सड़कों पर चल नहीं सकते क्योंकि पुलिस मारती है. नहरों के किनारे किनारे पटरियों के किनारे चलने को मजबूर ये लोग कौन हैं.

ये लोग रहे नहीं. ये लाशें हैं जो खुद को ढो रही हैं और साथ में ढो रही हैं उन लोगों की लाशों को भी जो अपने ड्राइंगरूम में बैठे कह रहे हैं - अरे ये साले मजदूर मूर्ख हैं क्या. जा क्यों रहे हैं. पटरी पर सो क्यों रहे हैं.

मृत्यु की यात्रा सबको करनी है. भगवान करे इन मजदूरों की यात्रा पर हंसने वाले लोगों का जीवन इन मज़दूरों जैसा हो. मेरे मन से सिर्फ बद्दुआ ही निकल सकती है ऐसे लोगों के लिए जिन्हें लगता है कि मजदूरों को शहर में भूखे मर जाना चाहिए. सड़क पर नहीं जाना चाहिए. चलना नहीं चाहिए क्योंकि इससे सरकारों की बदनामी होती है.

और हां. सरकार. सरकारों का क्या कहना. वो तो हिंदू की है मुसलमान की है. गरीब की नहीं.

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